क्या आज के बदलते परिवेश में हमे अपने बुजुर्गो को वृधाश्रम भेजना उचित है .......??
आज बहुत तेजी के साथ समय परिवर्तित हो रहा है ..समय के साथ ही लोगो के विचारो में भी परिवर्तन हो रहा है .
इन परिवर्तनों से हमारे घनिष्ट रिश्ते भी अछूते नहीं रहे है .बीते हुए कल में लोग माता पिता को भगवान मानते थे .वृधावाश्था में उनका ख्याल रखते थे .
आज स्थितिया बदल गयी है .आज किसी के विचार नहीं मिलते , कोई अपने व्यवसाय के कारण उनके साथ नहीं रह पता ...यही कुछ लोग आप को ऐसेभी मिल जायेगे जो आज भी माता पिता को भगवान का दर्जा देते है .तो कुछ ऐसे भी की उन्हें अपमानित करने का कोई भी मौका नहीं छोड़ते.
ऐसा क्यों होता है ? भगवान कुछ भी गलत नहीं करते फिर धरती के भगवान अपने बच्चो के लिए किसे गलत कर सकते है ..और जब भगवान गलत नहीं करते तो उपर वाला भागवान उनके साथ गलत क्यों करता है ...
आज की पीढ़ी से सभी अपेछा करते है की वो १.देश पर हमला होगा तो सबसे पहले अपनी कुर्बानी देने को उद्दत होंगें .
.प्यासे को देखकर लोग पानी पिलायेगें
.दुर्बल की मदद होगी
.खाना खाने से पहले सामने वाले से पूछा जाएगा
.किसी को खून की जरुरत होगी तो कई नवजवान रक्तदान के लिए आयेगें .कोई विक्लांग सड़क पर गिरेगा तो लोग उठाकर उसकी मदद करेगें लेकिन कभी कभी ऐसा नहीं होता है क्यों?क्या जब बेटे ने पिता को पहली बार अपमानित किया या अनुचित बात बोली थी उस समय पिता उसे रोक नहीं सकता था उचित दंड नहीं दिया जा सकता था ..या पिता इतना मजबूर था बेटे के हाथ अपमानित होने के लिए ...
एक औसत बच्चा कम से कम १००० बार अपनी माँ की गोद में और बिस्तर पर ठोस द्रव और गैस विसर्जित करता है ..माँ सब बर्दाश्त करती है साफ़ करती है ..कोई बिल नही पेश करती है ...खुद गीले में लेटकर हमको सूखे में लिटाती है ....हम उस माँ को घर के एक कोने में खाँसने ताक नही देना चाहते . ऐसा क्यों होता है ?यदि बेटा चाहे तो ऐसा हो सकता है .
जो पिता बच्चे के जन्म के पूर्व से उसकी माता का भरण पोषण कर रहा होता है बच्चे को पढ़ा लिखा कर इतना योग्य बना सकता है की वह अपनी जीविका कमा सके क्या वह अपने वृधावस्था की जरूरतों को पूरा करने की व्यवस्था नहीं कर सकता है ,,वो बिलकुल कर सकता है .
आज के बदलते परिवेश की यह आवश्यकता बन चूका है की सभी अपने वर्तमान बच्चो के भविष्य और अपने भविष्य को आर्थिक और मानसिक रूप से सुरक्षित करे ..
आज ये जो पीढ़ी अंतराल का राग अलापा जा रहा है .वो "पीढ़ी अंतराल" सांस्कृतिक विलम्बन का वास्तविक चेहरा है...
आर्यावृत भारतवर्ष में संस्कारों की जड़ें बहुत गहरी हैं.... आज की जो ये युवा पीढ़ी है काफी हद तक कुछ हद तक संस्कार विहीन शहरी वर्ग (वो भी सिर्फ १०% तक ) में, जो अभिभावकों की अर्थोपार्जन की भूख के कारण पारिवारिक संस्कारों से वंचित रह गए हैं, देखने को मिलता है... आज भी भारतीय अपने अग्रज में भगवान को देखते हैं... उनसे कुछ पल की नाराजगी को उनकी बेइज्जती समझना भी गलत हैं... कयुनकि भक्त भगवन से भी रुठ जाया करते हैं... रही बात व्यावहारिकता की तो व्यावहारिकता कि बात करने वाले जान लें कि मूल के बिना अंश का महत्व नहीं होता... जीवन के कठोर धरातल पर माँ बाप बच्चे को यु नहीं छोड़ देते गलती .......को माफ़ करते है .
हम सोचते हैं की हम ज्यादा पैसे कमाकर अपने माँ बाप ज्यादा सुखी रख पायेंगे. मगर इसमें कितनी सच्चाई है हम सभी जानते हैं. लेकिन हम उनके पास रहकर भी तो कुछ नहीं कर पायेंगे अगर हमारे पास पैसे और नौकरी ना हो...फिर हम क्या करें....शायद इसमें हमें कोई बीच का रास्ता निकालनाचाहिये और भौतिकवाद तथा आवश्यकताओं के बीच एक लक्ष्मण रेखा खीचने की आवस्यकता है ..जो माता पिता हमारे बचपनकी अनगिनत गलतियों को भूल जाते है ..हमारी परवरिश करते है वृधावस्था में हमे भी उनकी गलतियों ,उनकी वे बाते जिनसे हमारे विचार भिन होते है हँस के टाल देने चाहिए .हम भले ही उनसे दूर रहे कितु उन्हें इस बात का आभास तो करा ही सकते है की जब भी उन्हें मदद की आवस्यकता होगी हम तइयार होगे और इस बात का अह्शान नहीं जतायेगे.. किसी भी रिश्ते को निभाने के लिए आपसी सामंजस्य का होना बहुत जरुरी होता है
माता ,पिता के साथ या अन्य किसी भी रिश्ते के साथ हमारा जुडाव भावनात्मक रूप से होता है रही रही सम्मान करने और पाने की बात, तो ये निर्भर करता है की माता पिता ने किसे संस्कार अपने बच्चो को दिए है ..साथ ही कुछ माता पिता के और कुछ बचो के भी पूर्व जनम के कर्म होते है .अत: हमे अपना कर्म करना चाहिए ..और किसी भी परिणाम की उम्मीद नहीं करनी चाहिए ..ऐसा गीता में भी कहा गया है ....