Wednesday, 31 August 2011

शायद इसीलिए वो नज़रें झुका मिलती है

क्या फ़र्क है ख़ुदा और पीर में 
क्या फ़र्क है किस्मत और तक़दीर में 
चाहो ग़र कुछ दिल से और ना मिल पाए 
तो समझना कुछ और अच्छा लिखा है नसीब में 

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बाहों में भरके सुला दूँ तुझको 
आ खुद में आज छुपा लूँ तुझको 
भरी दुनिया में मुझसा न मिलेगा कोई 
आ ऐसा एक एहसास दिला दूँ तुझको 

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शिकवा रहे हमसे या गिला रहे हमसे 
आरज़ू है बस यही एक सिलसिला रहे हमसे 
फासले हो दरमियां या खता हो कोई 
दुआ है यही के नजदीकियाँ रहें हमसे 

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जाने क्यूँ वो हमसे मुस्कुरा के मिलती है 
अन्दर के सारे ग़म छुपा के मिलती है 
जानती है के आँखें सच बोल जातीं है 
शायद इसीलिए वो नज़रें झुका मिलती है 

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