जिन्दगी और मुझमें शुरू से ही ठनी थी।
उसे बड़ा करने की जिद्द थी ,
मेरी बचपन बचाने की मुहिम थी
जिन्दगी ने हर कदम एक नई चाल चली,
मैंने भी हर कदम उस चाल को यूं मात दी,
जब राहो में उसने वज़ीर कई खड़े किये,
तब मेरे बुद्धु से दिखते प्यादों ने भी कमाल किये,
चालो से भरे शह और मात के इस खेल में,
यूं ही जिन्दगी हमसे उलझती रही,
और हम भी अपने बचपन को चुरा कर निकलते रहे।
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