Wednesday, 28 October 2020

काशी की गंगा 1

 

अगर मैं तुम्हे बता सकूं की
मेरा ऐसे कभी कभार लिखना
हमारे संवाद सा है
टूटा फूटा मगर जटिल
पर लिखना अब मुझे मिजाज से अपाहिज
और तन से हताश बना देता है
बिल्कुल हमारे संवाद की तरह

अगर मैं तुम्हे बता सकूं
तो बताऊंगी की
हो सके तो कर लेना बातें
महीने की पगार और इन्फ्लेशन के बारे में
टेरिस पर एक लम्बे किस के बाद
गर हो सके तो बचा लेना
वो दो लाल फेवरेट कॉफ़ी मग
वो तारीफे जिनसे तुम मुझे सजाते थे
जो हमारी शामों का हिस्सा है
क्यूंकि पूरे होने की एक ही शर्त है
एक अधूरी " मैं "
और इक आधे " तुम"

अगर मैं तुम्हे बता सकूं
तो बताऊंगी की
पहाड़ो से उतरती धुँध में
मैं कैसे बनाती हूँ तुम्हारा चेहरा
किसी प्रिंटर की पिन ब्रश से निकली
एक अघड़ सी तस्वीर सा
तारो से बिछे आसमान में
मुझे नही दिखती है कोई गैलेक्सी
दिखती है मुझे तुम्हारी दो जोड़ी आँखे
वो मुस्कुराती आँखे जो चमक उठी थी
मुझे अपने पास देखकर
और कहा था तुमने
चले आओ इश्क़ करते है

अगर मैं तुम्हे बता सकूं
तो बताऊंगी की
आजकल पूरी रात
ये सोचने में बीत जाती है की
तुम्हे भूल जाऊं या याद करूँ
कभी साथ बिताए पल
खुशी के आँसू बनकर बहते है
तो कभी जुदा होने का वक़्त
पलके भिगो देता है
बिना कुछ कहे जो बातें
कह आती हो तुम उस बड़े से समंदर को
उन बातों के लिए शब्द चाहता हूँ
आज मैं तुम्हारे साथ
तुम्हारे इश्क़ में इक अज़नबी
एहसास हो जाना चाहता हूँ

अगर मैं तुम्हे बता सकूं
तो बताऊंगी की
"तुम" "तुम" ही रहो और
एक एक हाथ "हम" का थामे हुए
जैसे बनारस में गंगा और
गंगा किनारे बसा बनारस
बस इतनी सी ही तो

ख्वाहिश है जाना
मैं तुम्हारे इश्क़ में बसा लू खुद मे तुझको
और बन जाऊ तेरी... बन जाये तू शिव मेरा और मै तेरी काशी ....बन जाय तू काशी और मै
काशी की गंगा होना चाहती हूँ




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